Thursday, September 08, 2011

चीख


कौन सी परिभाषा से करूँ संतुष्ट, स्वं की आधारशिला
मशीनी चाहतो में, चिंगारियों में, भय - भूख में लिपटी 
मेरी आत्मा आज कुंठित है!

ख़ुदा को खोजने के वास्ते हजारों ईंट नोचे हैं,
मंदिर हवन की शान्ति में कितने खून पोछें हैं'
कभी क्रांतियों में सर कटा कर लौट आतें हैं, 
कभी लाठियों से बेवजह ही चोट खातें है.  

किसी लालटेन की रौशनी में दुबकी हुई
हमारी हर लड़ाई, बस बयानों तक सिमित है
और अस्तित्व की कल्पना, शायद
अगले धमाके तक जीवित है!


हम चुनेंगे कठिन रस्ते, हम लड़ेंगे

हम चुनेंगे कठिन रस्ते जो भरे हो कंकड़ों और पत्थरों से  चिलचिलाती धूप जिनपर नोचेगी देह को  नींव में जिसके नुकीले काँटे बिछे हो  हम लड़ेंगे युद्...